वो एक अलग ही दौर था,
वो समय ही कुछ और था।
डर था ?...आशा थी ? ... गुस्सा था ? .....
ना.... वो कुछ और था,
वो एक दौर था।।
सावन की रिमझिम थी, गीला आँगन था।
दो गज का सागर था, कागज़ की नाव थी।
वो कुछ और था,
वो एक दौर था।
हाथ में डण्डा था, उड़ती हुई गिल्ली थी।
सुत में कसा लटटू था, खट्ट से उड़ती बिल्ली थी।
आवारा था ? ना वो कुछ और था।
वो एक दौर था।।
वैशाख के रातें थी। बरगद पे जुगनू थे।
तारों का समंदर था। आँखों में भरते थे।
बेपरवाह था ?.... ना, वो कुछ और था।
वो एक दौर था।।
बेवजह हँसना था। हर डांट पे रोना था।
जोर का चिल्लाना था, रूठ के मानना था।
और जब ... तमीज़ की मुस्कान है, तन्हाई के सेर है।
वो सुकून था , वो कुछ और था।
वो एक ख़ूबसुरत दौर था।।
वो समय ही कुछ और था।
उन शांत और ख़ूबसुरत फ़िज़ाओं में,
बस चाहतों का शोर था।
वो एक सुहाना दौर था।।