कुछ कुछ मिली सी, तो कुछ धुंधली सी,
अस्सी में जल रही हो, कोइ धूप हो जैसी।
एक शहर हैं, जहाँ इत्मीनान हैं, यहाँ गंगा की लहरें हैं,
जब जीवन ने पहेली साँस ली, गंगा के तट पर काशी बसी।
संस्कारों का दीप जला, ज्ञान की गंगा यही बही,
माँ गंगा ने जिसे अपने धारा से सवारा हैं,
बनारस उसी घाटों का किनारा हैं।
हर गली में इतिहास गूंजता, हर कोने में हैं वेद बसे,
संतों के चरणों की रज में, जीवन का सार बहे।
अस्सी पे अठखेलियाँ हैं, मणिकर्णिका पे मोक्ष हैं,
माँ गंगा की लहरों के संग, देखे हैं कितने अद्भुत रंग।
हर घाट की नई कहानी हैं, जीवन और मुक्ति प्रसंग,
ज्ञान की देवी यहाँ मुस्कुराए, सारनाथ में बुद्ध उपदेश सुनाए।
जहाँ धर्मचक्र ने गति पाई, वही भूमि हमें सत्य दिखाई,
विद्या का कल्पवृक्ष हैं, इसकी हर बात में रस हैं,यह शहर बनारस हैं।
अमर हैं मोह, जो मोह हमें हैं, कुछ इस तरह हमें बनारस से मोह हैं।
पंछियों ने छोड़ा हो, कोइ राग हो जैसे ,
इंसानों में रमता हो कोइ भगवान हो जैसे।
गलियों में दौड़ता कोइ बचपन फिर से,
सर्दियों में ओढ़ा कोइ मफलर हो जैसे।
रंग बनारसी पहने हुए, कुछ यूँ शहर को देखा,
गंगा में नहाकर पाप पुण्य की परछाई में, खुद को देखा।
जो पास तेरे, वही तेरा, बाकी सब मोह का फिरा,
तू क्यों समझ ना पाया,तन मिट्टी हैं मन माया।
ऊंगली थामे हैं महादेव, सर पर माँ गंगा का अंचल हैं,
सुना हैं इश्क दोबारा होता हैं,
इस बार मैनें 'बनारस' को गले लगाया हैं।
में रुक कर इस शहर को फिर से जीना चाहती हूं,
में एक उम्र बनारस में गुज़ार देना चाहती हूं।
"श्लोक - स्कंद पुराण - काशी खंड".....
"न विश्वेश्वर समो लिंगम् ।
न काशी सदृशी पुरी ।।
न मणिकर्णिका समो तीर्थम् ।
नास्ति ब्रह्माण्ड गोलके ।। "
"ॐ नमः पार्वती पतये हर हर महादेव" ।।
